जिस वक्त हम हिन्दुस्तानी लोग विश्व के रंगमंच पर अपनी-अपनी उपलब्धियों की विजय-पताका फहराने और अंतरिक्ष भेदने के अपने कारनामे के बखान में मगन हैं. ठीक उसी वक्त हिंदुस्तान डगमगाती अर्थव्यवस्था और नौजवान रोजगार को तरस रहे हैं.
दरअसल, अर्थव्यवस्था में आई मंदी सिर्फ जीडीपी के सिकुड़ने जितनी बात नहीं है. सही मायने में यह बीते कई वर्षों में अर्जित आर्थिक विकास के सिकुड़ने का क्रम भी है. इसमें वर्षों की लंबी लड़ाई के बाद गरीबी से बाहर निकाली गई आबादी, बड़े स्तर पर रोजगार सृजन, प्रति व्यक्ति आय दर में वृद्धि, लोगों के सामाजिक और आर्थिक स्तर में सुधार जैसे सफलता के निराशा में बदल जाने की प्रबल आशंका है. कोविड-19 के दौर में मंदी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को रोजगार, गरीबी, आय जैसे महत्वपूर्ण आयामों पर काफी पीछे ले जा रही है.
आर्थिक मंदी सिर्फ हमें कमजोर नहीं करती, बल्कि ज्यादा भयावह इसलिए हो जाती है. क्योंकि यह एक नए मोड़ पर ले जाकर छोड़ देती है. कोविड-19 के चलते यह वह मंदी है. जो एक अनिश्चित मोड़ पर ले जाकर हमें खड़ा कर देगी. एक भयंकर बेरोजगारी की समस्या निकट भविष्य में आने वाली है और यही बेरोजगारी की समस्या भविष्य में गरीबी और आय असमानता की गंभीर समस्या को पैदा करने जा रही है.
अगर मौजूदा परिवेश में नज़र डालें तो रोजगार की तीन श्रेणियां इस पूरे संकट में बनती दिख रही हैं. पहली श्रेणी उन लोगों की है, जिनका रोजगार हमेशा के लिए छिन जाएगा. जबकि दूसरी उन लोगों की है, जो मंदी की वजह से अपने पुराने काम पर वापस लौट जाएंगे और उन्हें उनकी क्षमता के अनुसार रोजगार मिल पाएगा. वहीँ तीसरी श्रेणी उन लोगों की है, जो नए उद्योगों और देश की सरकारों के भरोसे रोजगार की आस देख रहे हैं.
कोविड-19 की गंभीर महामारी से निपटने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की समस्या को और बढ़ा दिया. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी के आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल के पहले हफ्ते में बेरोजगारी दर 23 फीसदी पहुंच गई थी. तकरीबन 12 करोड़ नौकरियों के जाने की बात कही गई थी. उस दौरान देश में कुल 40.4 करोड़ रोजगार उपलब्ध थे, जिनमें से 8.12 करोड़ रोजगार वेतनभोगी थे. बाकी बचे 32 करोड़ रोजगार वे थे, जो दैनिक मजदूरी या स्वरोजगार में थे.
लेकिन, भारत में यह बेकारी की समस्या महज कोविड-19 की वजह से ही नहीं आई है. बल्कि यह पहले से ही चल रही थी. एनएसएसओ के मुताबिक, वर्ष 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी थी. यह 45 साल का सबसे उच्चतम स्तर था.
इस समस्या की गंभीरता को इस तथ्य के साथ समझा जा सकता है कि बीते वर्षों में बेरोजगारी और वृद्धि दर लगभग बराबर रही है. वर्ष 2014 से 2019 के बीच आर्थिक वृद्धि दर जहां औसतन 7 फीसदी के आस-पास रही, वहीं बेकारी दर भी औसतन 6 फीसदी से अधिक रही है और फिर कोविड-19 ने भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की दर में बेतहाशा वृद्धि की है.
कोरोना के चलते बड़े पैमाने पर रोजगार गए हैं और नए रोजगारों को लेकर भी अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता बनी हुई है. जिन लोगों के सबसे अधिक रोजगार गए हैं वह भारतीय अर्थव्यवस्था का मिडिल क्लास, लोअर मिडिल क्लास और दैनिक मजदूरी वाला वर्ग है.
असल मायने में एक गंभीर आर्थिक और सामाजिक खतरा इन तीनों ही वर्गों में व्याप्त है. जारी आर्थिक मंदी इन तीनों ही वर्गों को कमजोर करेगी और जो वर्तमान मिडिल क्लास है, वह कल लोअर मिडिल क्लास होगा और आज का लोअर मिडिल क्लास शिफ्ट होकर गरीबी रेखा के नीचे चला जाएगा.
दैनिक मजदूरी करने वाली आबादी पहले से कहीं और अधिक कमजोर होगी. इस तरीके से भारतीय अर्थव्यवस्था में एक सिकुड़न देखी जाएगी. हाल ही में आईएमएफ ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य का जिक्र भी किया था कि भारत का मिडिल क्लास सिकुड़ रहा है. इसी बीच कोविड-19 की रोकथाम के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने इसकी रफ्तार को और तेज कर दिया है.
ऐसी परिस्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था एक नए दुष्चक्र को देखने वाली है. तेजी से रोजगार खत्म हो रहे हैं और नई नौकरियां इतनी आसानी से नहीं आने वाली है. सबसे अधिक रोजगार भारत के उभरते आर्थिक क्षेत्रों में गए. जैसे ओला, ऊबर, जोमैटो जैसे नए स्टार्टअप, होटल, पर्यटन, विमानन उद्योग, ऑटो और ऑटो पार्ट्स, एमएसएमई क्षेत्र, रियल स्टेट, कपड़ा उद्योग आदि.
लोगों को नौकरियों से निकालने का इरादा इन कंपनियों का नहीं था, लेकिन कंपनियां यह सब अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कर रही हैं. आज कंपनियों की बैलेंस शीट पूर्व की भांति नए रोजगार पैदा करने की वकालत करती नहीं दिखती है.
अर्थव्यवस्था में घटते रोजगार के अवसरों से अब लोगों की आय में कमी आएगी. ऐसी परिस्थिति में एक निश्चित वक्त तक ही लोग अपनी बचत के आधार पर खपत कर पाएंगे. उसके बाद बचत दर में भी कमी देखी जाएगी.
आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, भारत में इस संकट के पहले से ही बचत दर अप्रत्याशित रूप से घट रही थी. इन सब के परिणाम स्वरूप अर्थव्यवस्था में मांग घटेगी और निवेश में भारी कमी देखी जाएगी. नौकरियां कम होंगी और बाजार सिकुड़ जाएगा. बेरोजगारी की मारी भारतीय अर्थव्यवस्था गरीबी, आर्थिक असमानता और बेरोजगारी की एक नए दुष्चक्र में समा जाएगी.
ये सब आंकड़ें किसी बुरे सपने से कम नहीं हैं. लेकिन फिर भी ‘साहिबे मसनद’ मौन हैं. अब इसपर चर्चा और निवारण कब होगा राम जानें.