कहा जाता है कि नीतीश कुमार बिहार में सबसे दमदार चुनावी चेहरा हैं. यह भी कहा जाता है कि नीतीश कुमार का बिहार में कोई विकल्प नहीं है. जब नीतीश के नाम और काम को जीत की गारंटी माना जाता है तो फिर वे खुद चुनाव क्यों नहीं लड़ते? 1985 के बाद उन्होंने कोई विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है. आखिर क्यों ? लालू यादव को भी बिहार में मजबूत जनाधार वाला नेता माना जाता है. उनके बारे में धारणा है कि वे जिसे चाहे उसे जिता दें.
अगर लालू यादव का इतना ही पराक्रम है तो राबड़ी देवी चुनाव क्यों नहीं लड़तीं? राबड़ी देवी ने 2010 के बाद विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा है. नीतीश हों या राबड़ी देवी, विधान परिषद का सदस्य बन ही अपनी राजनीति पारी को आगे बढ़ा रहे हैं. क्या बड़े नेता हार से डरते हैं ? क्या वे इस बात से घबराते हैं कि अगर हार गये तो उनकी फलती-फूलती राजनीति विरासत नष्ट हो जाएगी?
2004 में लड़ा आखिरी चुनाव
नीतीश कुमार ने 1985 में पहली बार विधानसभा का चुनाव जीता था. इसके बाद वे सांसद रहे. अब 2006 से वे बिहार विधान परिषद के सदस्य बने हुए हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने विधानसभा का कोई चुनाव नहीं लड़ा है. नीतीश ने आखिरी चुनाव 2004 में लड़ा था. 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार दो जगह से खड़े हुए थे. बाढ़ और नालंदा दो सीटों से उन्होंने चुनाव लड़ा था. 1999 का लोकसभा चुनाव नीतीश ने बाढ़ से जीता था.
लेकिन 2004 में उन्हें बाढ़ की राजनीतिक फिजां कुछ बदली हुई लगी. तब उन्होंने अपने गृह जिले नालंदा की याद आयी. नालंदा के सीटिंग सांसद जॉर्ज फर्नांडीस थे. नीतीश ने जॉर्ज को मुजफ्फरपुर शिफ्ट कर नालंदा से नॉमिनेशन कर दिया. नीतीश की आशंका सच साबित हुई. 2004 में नीतीश बाढ़ में राजद के विजय कृष्ण से चुनाव हार गये. नालंदा सीट पर उनकी विजय हुई जिससे उनकी सांसदी बची रह गयी. बाढ़ की हार से नीतीश को बहुत सदमा पहुंचा था. बाढ़ लोकसभा क्षेत्र के बख्तियारपुर से उनका जज्बाती रिश्ता रहा है. उनका बचपन यहीं गुजरा है. यहीं पढ़ कर ही वे पढ़ाई में अव्वल आये तो इंजीनियर बने. उन्होंने एक बार कहा भी था कि मैं कहीं भी रहूं, दिल मेरा बाढ़ में बसता है. नीतीश कुमार केन्द्रीय मंत्री रहते चुनाव हार गये थे. इस हार ने उन्हें विचलित कर दिया था.
सांसद रहते बने मुख्यमंत्री
2004 में वाजपेयी सरकार की करारी हार हुई. नीतीश मंत्री की बजाय केवल सांसद रह गये. बिहार में राबड़ी देवी की सरकार चल रही थी. यह समय नीतीश का संक्रमण काल था. उस समय तक नीतीश, लालू यादव की तुलना में पीछे थे. लालू केंद्र में रेल मंत्री थे तो उनकी पत्नी राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं.
यहां से नीतीश को एक नया रास्ता बनाना था. 2000 में वे सात दिन का मुख्यमंत्री बन कर आलोचना का पात्र बन चुके थे. इसके बाद नीतीश मजबूत इरादों के साथ मैदान में उतरे. उन्होंने भाजपा के साथ मिल राबड़ी सरकार को उखाड़ फेंकने का बिगुल फूंका. नीतीश ने भाजपा के सहयोग से 2005 का विधानसभा चुमनाव जीत लिया. इस चुनाव में नीतीश खुद खड़े नहीं हुए थे क्यों कि उस समय वे सांसद थे. मुख्यमंत्री बनने के लिए नीतीश ने सांसदी से इस्तीफा दे दिया. अब उन्हें छह महीने के अंदर बिहार विधान मंडल के किसी सदन का सदस्य बनना था. नीतीश ने चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं लिया. उन्होंने विधान परिषद का सदस्य बनने का फैसला किया. 2006 में वे बिहार विधान परिषद के सदस्य बने. इसके बाद से नीतीश कुमार अभी तक विधान परिषद के ही सदस्य हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने खुद कोई चुनाव नहीं लड़ा है.
लालू और नीतीश
लालू यादव जब 1990 में मुख्यमंत्री बने थे तब वे भी सांसद ही थे. उन्होंने भी सांसदी छोड़ कर बिहार के सीएम पद की शपथ ली थी. तब लालू ने भी विधान परिषद का सदस्य बन कर ही सीएम की कुर्सी बरकरार रखी थी. लेकिन लालू यादव ने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा का चुनाव लड़ा था.
1995 में लालू यादव ने वैसे तो विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया था लेकिन अंदर ही अंदर वे हार को लेकर डरे हुए थे. उस समय लालू पिछड़ों के मसीहा बन चुके थे. उनकी राजनीतिक ताकत का बोलबाला कायम हो गया था. इसके बाद भी उन्हें हार का डर सता रहा था. राजनीति भविष्य की सुरक्षा के लिए लालू ने 1995 में दो सीटों, राघोपुर और दानापुर, से चुनाव लड़ा. दोनों सीट से जीते. दानापुर में उन्हें केवल 23 हजार वोट से जीत मिली थी इसलिए लालू ने यह सीट छोड़ दी. उनको लगा कि पिछड़ों के सबसे बड़े नेता को इतने कम वोटों से जीत क्यों मिली. लालू यादव कहते थे कि शेरदिल नेता को विधानसभा का चुनाव लड़कर राजनीति करनी चाहिए, विधान परिषद का सदस्य बन कर नहीं. लेकिन जब समय आया तो वे अपनी बात ही भूल गये.
खैर, ये सिसायत है. यहां कुछ भी परमानेंट नहीं होता.