बिहार का चुनावी रण अपने चरम पर है. सभी राजनीतिक पार्टियां कमर कस चुकी हैं. अब बस देरी है मतदान की. लेकिन इससे यहां का सियासी समीकरण जानने की कोशिश करते हैं.
वैसे मानना तो ये है कि बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन का सीधा मुकाबला राजद-कांग्रेस के महागठबंधन से है. हालांकि, बिहार की राजनीति को समझना उतना आसान नहीं है, जितना ऊपर से नजर आ रहा है.
क्योंकि राज्य में दोनों ही गठबंधनों को छोटे दलों का महत्व पता है. इसलिए सभी उन्हें साधने में लगे हुए हैं. जदयू पहले ही जीतनराम मांझी को साध चुकी है. दूसरी ओर, भाजपा की नजर उपेंद्र सिंह कुशवाहा की रालोसपा पर है, जोकि केन्द्र में पहले भी गठबंधन का हिस्सा रह चुके हैं. हालांकि, मांझी की जदयू से करीबी ने चिराग पासवान को ज़रूर नाराज कर दिया है.
केंद्र में भाजपा का राज है और प्रदेश में भी नीतीश के नेतृत्व में भाजपा-जदयू गठबंधन की सरकार. कोरोना काल में हो रहे चुनावों में किसी भी दल के लिए सत्ता तक पहुंचने का रास्ता आसान नहीं है. इसलिए एक नज़र उन 5 बड़े राजनीतिक खिलाड़ियों पर डालते हैं, जो बिहार में जीत की पटकथा लिखने में सबसे माहिर माने जाते हैं.
पहला नाम- नीतीश कुमार
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा-जदयू गठबंधन एक बार फिर चुनाव मैदान में हैं. पिछले चुनाव में भाजपा से खफा होकर नीतीश ने लालू यादव की राजद से हाथ मिला लिया था. दोनों दिग्गज नेताओं ने मोदी की भाजपा को पटकनी देकर सत्ता का रास्ता भी तय किया था. हालांकि, कुछ समय बाद ही दोनों नेताओं का एक दूसरे से मोहभंग हो गया और नीतीश फिर भाजपा के करीब आ गए. नीतीश 4 बार राज्य की कमान संभाल चुके हैं और जनता की नब्ज भी बखूबी समझते हैं.
दूसरा नाम- तेजस्वी यादव
राजद यानी राष्ट्रीय जनता दल के संस्थापक लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन इस बार चुनाव मैदान में है. लालू की अनुपस्थिति में पार्टी की कमान संभाल रहे तेजस्वी का नाम बिहार के युवा और तेजतर्रार नेताओं में लिया जाता है. कांग्रेस भी उनके साथ मजबूती से डटी हुई है. हालांकि, पार्टी को पारिवारिक कलह के चलते नुकसान भी उठाना पड़ सकता है.
2 साल बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव में अनुभव की कमी है, लेकिन फिर भी उन्होंने पिछले 3 सालों से नीतीश सरकार की नाक में दम कर रखा है. रघुवंश प्रसाद जैसे दिग्गज नेताओं से भले ही उनकी पटरी नहीं बैठी. लेकिन फिर भी उन्होंने मजबूती से राजद को संभाला. तेजस्वी इस चुनाव नीतीश कुमार और सुशील मोदी जैसे अनुभवी नेताओं को मात देकर राज्य की राजनीति में अपना खूंटा ज़रूर गाड़ना चाहते हैं. लेकिन ये वक्त तय करेगा कि ऊंट किस करवट बैठता है.
तीसरा नाम- सुशील मोदी
सुशील मोदी का नाम बिहार में भाजपा के तेजतर्रार नेताओं में लिया जाता है. 1990 में राजनीति की दुनिया में कदम रखने वाले सुशील मात्र 6 साल में बिहार विधानसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक बन गए और 2000 आते-आते मंत्री बना दिए गए. उसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उपमुख्यमंत्री भी बने.
2017 में नीतीश और जदयू को साधकर उन्होंने भाजपा को एक बार फिर सत्ता के गलियारे में पहुंचाया. उस समय उन्होंने जिस तरह से लालू-नीतीश के बीच लगातार बढ़ रही दूरियों का फायदा उठाया उसने तमाम राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान कर दिया था.
चौथा नाम- चिराग पासवान
रामविलास पासवान की तरह ही उनके बेटे चिराग पासवान को भी बिहार की राजनीति का माहिर खिलाड़ी माना जाता है. दलित नेता के रूप में पहचाने जाने वाले रामविलास पासवान तो बरसों से सत्ता सुख भोग रहे हैं. इस बार चिराग सीएम नीतीश से खफा हैं. उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) ने नीतीश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने पर भी सवाल उठाए हैं.
चिराग के पिता पासवान बीमार हैं और राजनीतिक हलचल से फिलहाल दूर हैं. ऐसे में इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं कि लोजपा 2020 के दंगल में राजद महागठबंधन का हाथ थाम सकती है. हालांकि, लोजपा के साथ ही जनअधिकार पार्टी के पप्पू यादव को भी उनमें सीएम फेस दिखाई दे रहा है. मतलब इधर भी मामला दिलचस्प है.
पांचवा नाम- उपेंद्र सिंह कुशवाह
बिहार की राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी उपेंद्र सिंह कुशवाह वैसे तो भाजपा के काफी करीब रहे हैं. लेकिन 2015 में लालू से नीतीश के गठबंधन के समय भी वे भाजपा से ही जुड़े रहे और इनाम स्वरूप केंद्रीय मंत्री पद भी पाया. लेकिन लोकसभा चुनाव के समय टिकट बंटवारे से नाराज उपेंद्र ने भाजपा-जदयू गठबंधन नाता तोड़ लिया महागठबंधन के करीब चले गए.
इस विधानसभा चुनाव में उपेंद्र का राजद से टिकटों को लेकर विवाद चल रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि अगर उन्हें टिकटों पर ही समझौता करना है, तो वह फिर भाजपा की शरण में जा सकते हैं.
बहरहाल, बिहार की राजनीति में आने वाले कुछ दिन काफी उठापटक वाले हो सकते हैं. नीतीश की नजर उपेंद्र सिंह कुशवाह पर है, तो चिराग को तेजस्वी अपने साथ मिलाना चाहते हैं. मतलब साफ़ है कि बिहार की राजनीति में जाति का बड़ा महत्व है और इन दोनों नेताओं कोई भी खोना नहीं चाहता.
एक बात तो साफ़ है कि चुनावी लड़ाई बेहद दिलचस्प होने वाली है.