बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियां दमदार तरीके से चल रही हैं. रैलियां भी ताबड़तोड़ हो रही हैं. डिजिटल प्रचार भी अपने झंडे गाड़ रहे हैं. और राजनीति-कूटनीति दोनों ही एक दूसरे के कान काटने में जुट गए हैं. ये तो बड़ी कम शब्दों में कही गईं कुछ मुख्य बातें थीं. लेकिन अब शब्दों की संख्या बढ़ाते हैं, और जानकारी भी.
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 20 सितंबर को कोसी रेल महासेतु का उद्घाटन किया और उसे राष्ट्र के नाम समर्पित किया. इस दौरान कई दूसरे रेल प्रॉजेक्ट्स का भी उद्घाटन किया गया.
मतलब साफ़ है कि निर्वाचन आयोग बिहार का चुनावी बिगुल बजाता, इससे पहले ही प्रधानमंत्री मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शिलान्यासों और उद्घाटनों का शंख फूंक दिया है. वहीं नीतीश बिहार में लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं और राज्य कोविड-19, बाढ़ और प्रवासियों के संकट से जूझ रहा है.
मीडिया और राजनैतिक दिग्गजों के एक तबके का अनुमान है कि इन चुनावों में एनडीए की लहर में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन का सूपड़ा साफ होने वाला है. लेकिन सच तो यह है कि एनडीए और महागठबंधन, दोनों को अपने सहयोगी दलों के आपसी मतभेदों से जूझना पड़ रहा है.
चुनावी हवा मतलब खतरे की घंटी
सत्ता में 15 साल रहने पर विरोधी लहर होना कोई बड़ी बात नहीं. वोटर्स के दिलो दिमाग में बोरियत सी घर करने लगती है. नीतीश कुमार महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड का हाल देख चुके हैं. इन सभी जगहों पर भाजपा को चुनावी डगर बहुत आसान लग रही थी. इसीलिए नीतीश कुमार कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते.
यूं चौथे कार्यकाल का सपना देखने वाले कई नेताओं ने विधानसभा चुनावों में मुंह की खाई है. शिवराज सिंह चौहान (मध्य प्रदेश), रमन सिंह (छत्तीसगढ़), शीला दीक्षित (दिल्ली), बिधान चंद रॉय (पश्चिम बंगाल), तरुण गोगोई (असम) और लालू प्रसाद यादव (बिहार).
बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ तेज हवा बह रही है और उनके पास इस हवा को पलटने की कोई तरकीब नहीं है. 2005 के चुनाव उन्होंने ‘बिहारी अस्मिता’ और जंगल राज के नाम पर जीते थे, 2010 में सुशासन के नाम पर. 2015 में लालू की पार्टी के साथ गठबंधन करने के साथ उन्होंने मोदी के डीएनए वाले बयान का इस्तेमाल किया था और सीधे मोदी को ही चुनौती दी थी.
अब 2020 में नीतीश भाजपा और मोदी की जुबान बोल रहे हैं और पूछ रहे हैं कि राजद ने सत्ता में 15 साल रहकर क्या काम किया था. वैसे ही जैसे भाजपा कांग्रेस से ’70 साल का हिसाब’ मांगती है. लेकिन नीतीश के पक्के समर्थकों का भी यही मानना है कि तीसरे कार्यकाल में नीतीश ने कुछ हासिल नहीं किया. बस, ज्यादातर वक्त अपनी कुर्सी ही बचाते रहे.
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नज़र?
नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री मोदी का रिश्ता उतार-चढ़ाव भरा रहा है. एक वह दौर था जब नीतीश इस बात पर अड़ गए थे कि भाजपा चुनावी मैदान में मोदी को स्टार प्रचारक के तौर पर न उतारे. उन्होंने 2010 में गुजरात की तरफ से आए बाढ़ राहत फंड को भी वापस कर दिया था.
2013 में जब मोदी भाजपा की कैंपेन कमिटी के चीफ बनाए गए तब नीतीश ने एनडीए का दामन छोड़ दिया था. तब यह स्पष्ट था कि मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं.
उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘इस देश के लोग विघटनकारी ताकतों को कभी स्वीकार नहीं करेंगे. उनका मकसद इस देश को बांटना और राज करना है. हमें पता था कि यही होगा. हम उनके लिए सिर्फ यही कह सकते है- विनाश काले, विपरीत बुद्धि.’
इस महागठबंधन में जदयू और राजद के अलावा कांग्रेस भी शामिल थी. 2015 के बिहार चुनावों में महागठबंधन ने भाजपा के विजयरथ को रोका. नीतीश मुख्यमंत्री बने रहे और मोदी को जोर का झटका लगा. उस समय नीतीश बिहार में मोदी से भी ज्यादा लोकप्रिय थे.
2015 के चुनाव अभियान के दौरान दोनों ने एक दूसरे पर आग उगली थी. एक रैली में मोदी ने कहा था कि ‘नीतीश के राजनैतिक डीएनए में कुछ गड़बड़ है’, तभी वह अपने राजनैतिक साथियों को बदलते रहते हैं. बदले में नीतीश ने कहा था कि मोदी ने बिहार के लोगों का अपमान किया है. इसके बाद एक अभियान चलाया गया था जिसमें जदयू ने दावा किया था कि 50 लाख लोगों ने मोदी को जांच के लिए अपने ‘डीएनए सैंपल’ भेजे हैं.
नीतीश बनाम नोटबंदी
नीतीश कुमार ने मोदी सरकार के नोटबंदी वाले फैसले की जमकर आलोचना की थी. उन्होंने कहा था कि ‘केंद्र को हमें बताना होगा कि नोटबंदी के क्या फायदे हुए हैं. जब दुनिया में कहीं भी कैशलेस या लेस कैश अर्थव्यवस्था काम नहीं कर पाई है तो भारत जैसे देश में यह कैसे काम करेगी?’
2017 में जब लालू और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के नए आरोप लगाए गए, तो नीतीश एनडीए में वापस चले गए. उन्हें इस का विश्वास था कि वह मोदी-शाह को साबित कर सके हैं कि उनके समर्थन के बिना भी वह जीत सकते हैं.
हालांकि, चुनाव नतीजे आने के बाद मोदी ने एक बार फिर उनकी अनदेखी की. जदयू के सिर्फ एक सांसद को कैबिनेट में जगह देने का प्रस्ताव दिया. नीतीश ने कम से कम छह पदों की मांग की थी. इसलिए इस पेशकश को ठुकरा दिया. उनका कहना था कि कम सांसदों वाली पार्टियों (अकाली दल और पासवान की एलजेपी) को भी इतना ही प्रतिनिधित्व मिल रहा है.
भाजपा का मानना था कि जदयू के अच्छे प्रदर्शन की वजह मोदी का करिश्मा है. बिहार में 35 प्रतिशत लोगों ने चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को महत्व दिया था, जबकि अखिल भारतीय आधार पर 17 प्रतिशत लोगों के यह मानना था कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को देखकर वोट दिया है. तो, बिहार का औसत राष्ट्रीय औसत से दुगुना था.
लोकसभा के नतीजों के बाद जब जदयू को कैबिनेट में मनमर्जी की जगह नहीं मिली, तो कई तरह की अफवाहों का बाजार गर्म हुआ. यह बात फैली कि नीतीश एनडीए को छोड़कर अकेले विधानसभा चुनाव लड़ेंगे या राजद के साथ कदमताल करेंगे. हालांकि, जब भाजपा ने ऐलान किया कि नीतीश ही गठबंधन में मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे, दोनों पार्टियों के बीच तनाव छंट गया.
कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स का उद्घाटन करते वक्त प्रधानमंत्री ने नीतिश को ही एनडीए का मुख्यमंत्री चेहरा बताया और उनकी वाहवाही की.
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘प्रगति की राह में बिहार को आगे ले जाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बड़ी भूमिका निभानी है. हमें बिहार में सुशासन सुनिश्चित करना है. राज्य में पिछले 15 वर्षों के दौरान जो अच्छा काम हुआ है, उसे जारी रहना चाहिए.’
बड़ा सवाल… क्या नीतीश-मोदी का समीकरण जरूरी है? तो जानें…
संभव है, 69 वर्ष के नीतीश का यह आखिरी संघर्ष हो, इसीलिए उन्हें इसमें जीत हासिल करने के लिए मोदी का साथ चाहिए. यह वही मोदी हैं, जिनके साथ उनका लाग-डाट का रिश्ता रहा है. मोदी की लोकप्रियता फिलहाल काफी अधिक है. कोरोना वायरस महामारी को काबू में करने में विफल रहने और सीमा पर चीन की घुड़कियों के बीच भी लोग उनसे खुश हैं.
उन्हें यह भी उम्मीद है कि भले ही उनका नेतृत्व कमजोर पड़ जाए. लेकिन मोदी की लोकप्रियता इतिहास रच सकती है. रिपोर्ट के अनुसार, भरोसे, समझदारी और क्षमता जैसे मापदंडों के आधार पर नीतीश तेजस्वी से पिछड़ गए हैं.
हार ‘गलत संदेश’ देगी. इसीलिए बिहार में एनडीए की किस्मत मोदी-नीतीश के समीकरण पर टिकी हुई है.
एनडीए की जीत के बाद भी नीतीश कुमार को अपने पद पर टिके रहने के लिए मोदी के ‘आशीर्वाद’ की जरूरत होगी. जमीनी स्तर की खबरों के अनुसार, भाजपा को जदयू से ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद है. इससे पूरा परिदृश्य बदल सकता है और इस नई-नई दोस्ती में खलल पड़ सकता है.
बात यहीं नहीं ख़तम होगी. होगा और भी बहुत कुछ. तब तक टकटकी बांधकर ‘धांसू’ की दमदार खबरें देखते और पढ़ते रहें. नमस्कार…